
अभी वर्तमान समय में जिस भयावह रोग से जन मानस आतंकित और डरा हुआ बेबस हो रहा है। वहीं उसके निवारण के लिए भी अपने अपने स्तर पर अनेकानेक उपाय किए जा रहे है । धर्म क्षेत्र में भी बुद्धिजीवी अपने अपने मतानुसार रोग निवारणार्थ कोई ना कोई मंत्र , अनुष्ठान, कवच और स्त्रोत का उपाय बता कर यह भ्रम फैला रहे है कि ये पूर्व में ही पुराणों में वर्णित है जबकि ऐसा अभी तक मेरी दृष्टि में तो नहीं आया । हो सकता है मै अभी तक इतना अध्ययन नहीं कर सका हूं इसलिए ।
लेकिन संतों के चरित्र , महापुरुषों का जीवन और जीवन जीने की कला उपनिषदों के आख्यान से इतना तो अल्प बुद्धि में कुछ समझ आया कि श्रृद्धा ही समस्त विपत्ति से लडने और जीतने का सर्वोत्तम उपाय है । तभी तो मानस में भक्त तुलसीदास जी कहते है - श्रृद्धा बिना धरम नहीं, तेहि बिन द्रवहि ना राम। राम कृपा बिन कबहुक जीव ना लही विश्राम ।।
अर्थात श्रृद्धा ना हो हृदय में तो व्यक्ति धर्म की ओर नहीं चल सकता और बिना धर्म के परमात्मा कभी भी अनुकूल नहीं होता । जिसकी कृपा बिना जीव कभी भी विश्रांति को प्राप्त नहीं हो सकता । मंगलाचरण में तुलसी बाबा कितना स्पष्ट संकेत करते है - भवानी शंकर वन्दे श्रृद्धा विश्वास रूपनौ ।उन्होंने विश्वास को ही शिव का स्वरूप बताया वह विश्वास किसी के भी प्रति हो पर हो सत्प्रतिशत । श्रृद्धा को शक्ति के रूप में आख्यातित किया । चैतन्य महाप्रभु के समय की एक घटना से श्रृद्धा और विश्वास को समझा जा सकता है। जब महाप्रभु काशी में प्रवास कर रहे थे तो उनके पास एक प्रौढ़ ब्राह्मण आए जो मुस्लिम आक्रांताओं के दबाव में मुस्लिम बन गए थे । लेकिन चैतन्य देव के भक्ति आंदोलन ने उनकी आत्मा को झंकझोर दिया और वे काशी के ब्राह्मणों के पास पहुंचे कि उन्हें दुबारा से हिन्दू धर्म में लेने की कृपा करे । काशी के धर्म संसद में उन्हें प्रायश्चित के लिए निर्देश दिया गया और उनसे खोलते हुए तेल को पीने का आदेश दिया गया ।जिसे सुनकर वे चुपचाप चले आए क्योंकि खोलते तेल को पीने से प्रायश्चित हो या ना हो हां जीवन जरूर चला जाता । मरने के बाद काहे का धर्म और काहे का समाज । चैतन्य महाप्रभु से उन्होंने प्रार्थना की और पूर्व की सारी घटना कह सुनाई बड़े ही द्रबिभूत होकर रोते हुए उनके चरण पकड़ कर बोले आप मेरा उद्धार कीजिए । महाप्रभु ने बड़े ही स्नेह से उनके सिर पर हाथ फेरा और बोले पंडितजी कृष्ण कहो । कृष्ण कहो ।जैसे ही उन्होंने एक बार कृष्ण बोला महाप्रभु भाव उन्वेग में अा गए और बोले बस आपका प्रायश्चित हो चुका ।ईश्वर नाम स्मरण में हमारी श्रृद्धा होनी चाहिए । बार बार नाम लेने की जरूरत नहीं आप आज से ब्राह्मण हो ।बताइए कहां तो उन ब्राह्मण देव को जान के लाले पड़े थे और कहां कृष्ण स्मरण सिर्फ एक बार करने से वे चैतन्यमहाप्रभु के कृपा पात्र बने । मूल में यहां भी श्रृद्धा का ही महत्त्व प्रतिपादित हुआ । वास्तव में शक्ति के अभ्युदय के बिना श्रृद्धा टिकती ही नहीं , क्योंकि श्रृद्धा शक्ति का ही स्वरूप है । अब प्रश्न उठता है कि श्रृद्धा से ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? मै कहूंगा बिल्कुल हो सकती है बल्कि ज्ञान की परोक्ष अनुभूति हो सकती है । जिस समय आचार्य शंकर बद्रीनाथ में निवास कर वेदांत सूत्र पर भाष्य लिख रहे थे उस समय उनके साथ उनके बहुत से शिष्य थे आदि। शंकर नित्य शाम को उन शिष्यों को बिठा कर सारे दिन का चिंतन सुनाते और उसे लिपिबद्ध करते । तोट काचार्य उनकी निजी सेवा में सलंग्न थे । उन्हें अक्सर आने में देर हो जाती थी । तोटक ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे इसलिए गुरुदेव का प्रतीक्षा करना शेष शिष्यों को अच्छा नहीं लगता था । आचार्य शंकर से कई बार दबी जुबान में उन्होंने अपना विरोध भी व्यक्त किया था । शंकराचार्य ने एक दिन श्रृद्धा की परिणीति ज्ञान में हो जाती है ये सिद्ध करने के लिए अपने संकल्प से सारा ज्ञान तो टका चार्य में प्रेषित कर दिया जैसे ही तो टका चार्य आए आचार्य शंकर उनसे बोले टोटक आज मै जो सुनाऊंगा उसे बोलो शिष्य गुरु कृपा को प्राप्त कर धाराप्रवाह संस्कृत बोलने लगा और सारी मीमांसा कह सुनाई । सारे विद्वान सिष्य लज्जित हुए । मेरे कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि यदि हम प्रकृति के प्रति श्रृद्धा वान बने और अपनी आत्म चेतना को विराट ऊर्जा से एकीभूत कर ले तब कभी भी ना कोई विपत्ति और ना किसी भय की गुंजाइश रह जाती है । अंत में मै अग्रज हनुमान दादा द्वारा उद्धृत की गई बात कह अपनी बात पूर्ण करता हूं ।
कह हनुमंत विपत्ति प्रभु सोई, जब तब सुमिरन भजन ना होई ।
-जयति अवधूतेश्वर
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